सरयूसुत मिश्रा
अनियंत्रित बढ़ती आबादी हमेशा से ही चिंता का कारण रही है. भारत आज विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है. भारत ने चीन को भी पीछे छोड़ दिया है. भारत की आबादी भारत की भले ही ताकत हो, लेकिन इसका संतुलन बेहद जरूरी है. जनसंख्या नियंत्रण भारत में राजनीति और धर्म के मुताबिक होता रहा है. राजनीति, जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर हाथ डालने से डरती है. धर्म इसे अपनी जनसंख्या बढाने का आधार मानती है.
दुनिया में हालात ऐसे हैं, कि आज हर देश युद्ध के मुहाने पर खड़ा है. कोई ऐसा समय नहीं होता, जब किसी न किसी देश के बीच में युद्ध ना हो रहा हो या युद्ध की तैयारी ना हो रही हो. धन से कमजोर चल सकता है लेकिन बल से कमजोर नहीं. अब धीरे-धीरे जनसंख्या का मामला विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है. अब राजनीति को जनसंख्या के मामले में कोई ना कोई कदम उठाना ही पड़ेगा. धर्म और जातियों में बांटकर आबादी को देखना भले ही सही दृष्टिकोण नहीं हो, लेकिन जब यह असंतुलन डेमोग्राफी को बदल रहा हो तो, फिर उस पर सोचना जरूरी हो जाता है.
भारत पिछले दशकों में जाति से ऊपर उठकर धर्म की सोच पर बढ़ता दिख रहा है. इस नजरिए से जनसंख्या को भी देखा जा रहा है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि आबादी की संख्या ही संसदीय व्यवस्था में सरकारें निर्धारित करता है. जब भी चुनाव होते हैं तब तुष्टीकरण वोट जिहाद जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं. हिंदू मुस्लिम की राजनीति के बिना तो शायद भारत में चुनाव हो ही नहीं सकते हैं. लोकसभा चुनावों के बीच 65 साल में देश की आबादी में हिंदूओं के 7% घटने और मुस्लिम चार प्रतिशत बढ़ने की रिपोर्ट सामने आई है.
पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में यह आंकड़े आए हैं. धर्म के आधार पर भारत में हिंदू, मुस्लिम ईसाई, सिख और बौद्ध जनसंख्या रहती है. इनमें मुख्यतः हिंदू और मुस्लिम के बीच ही अधिकांश तुलना और तकरार देखी जाती है. कोई ऐसा चुनाव नहीं होता जब जनसंख्या में बढ़ रहे असंतुलन की बात सामने नहीं आती हो. जनसंख्या में कमी और वृद्धि के खतरे दिखाकर राजनीतिक ध्रुवीकरण एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है.
जनसंख्या नियंत्रण के लिए हमेशा से प्रयास होते रहे हैं. जो कांग्रेस आज आर्थिक सलाहकार परिषद के आंकड़ों को राजनीतिक चश्मे से देख रही है, वहीं कांग्रेस इमरजेंसी के समय पकड़-पकड़कर लोगों की नसबंदी करा रही थी. कांग्रेस के खिलाफ नसबंदी एक बहुत बड़ा मुद्दा था, जिसके कारण उसे अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी. धार्मिक सोच के आधार पर जनसंख्या नियंत्रण के उपाय को अपनाने पर भी भारत में विवाद की स्थिति है.
मुस्लिम समाज इसे धर्म के विरुद्ध मानता है. हिंदू समाज भी बच्चों के जन्म को ईश्वर की देन स्वीकार करता है. हर परिवार की इच्छा होती है, कि उसका वंश आगे बढ़े. चाह कर भी बहुत सारे परिवार ऐसे हैं, जिन्हें केवल बेटियां ही प्राप्त होती हैं. यह विज्ञान तो अभी तक समझ नहीं आया है,कि चाहने पर भी क्यों इच्छित संतान नहीं प्राप्त होती है. अगर विज्ञान में यह संभव नहीं हो पाया है, तो इससे तो यही लगता है,कि निश्चित रूप से यह अस्तित्व की ही कोई शक्ति है, जो प्रजनन की प्रक्रिया में भूमिका निभाती है .
धार्मिक मान्यता अपनी जगह है लेकिन आजकल हालात धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक कारणों से असंतुलित हो रहे हैं. कोई भी आबादी नए जन्म के साथ बढ़ती है. धर्म परिवर्तन की भी कानूनी सुविधा है. इससे भी आबादी में बदलाव होता है. इसके साथ ही दूसरे देशों से घुसपैठियों के कारण भी आबादी का संतुलन बिगड़ा है. हिंदू-मुस्लिम की आबादी में घटने बढ़ने का जो आंकड़ा है, वह राजनीतिक कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है.
तुष्टिकरण की राजनीति अल्पसंख्यक प्रेम के कारण नहीं, बल्कि सत्ता प्रेम के कारण होती है. जनसंख्या में असंतुलन के कारण कई राज्यों में डेमोग्राफी बदल रही है. इस बारे में बहुत सारे ऐसे तथ्य सार्वजनिक हुए हैं, जिनसे यह पता चलता है, कि कई राज्यों में आबादी हिंदू मुस्लिम के समीकरण से उलट-पुलट हो गए है. भारत में रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ भी मुस्लिम आबादी को बढ़ा रही है. CAA और NRC पर जो विवाद पैदा किया गया है, वह भी जनसंख्या को बढ़ाने की दृष्टि से ही किया गया है.
राजनीतिक विचारधारा में स्पष्ट विभाजन दिखाई पड़ता है. बीजेपी की विचारधारा जहां हिंदुत्व को अपना राजनीतिक जनाधार मानती है, वही कांग्रेस और उसके सहयोगी मुस्लिम तुष्टिकरण को अपना वोट बैंक मानते हैं. दोनों समुदायों में जिसकी भी जनसंख्या घटेगी, वह सीधे तौर पर उन दलों के लिए राजनीतिक नुकसान होगा. अगर यह डेमोग्राफी बदलने की अनुमति इसी तरह से बनी रहेगी तो फिर एक समय आएगा जब पॉपुलेशन जिहाद के आधार पर सरकारों की संरचना तय करने का संतुलन बदल जाएगा.
आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट के बाद जो राजनीतिक हल्ला मचा हुआ है, उसके पीछे भी यही दृष्टिकोण है. अगर लोकसभा चुनाव की दृष्टि से जनसंख्या में आ रहे असंतुलन पर विचार किया जाए, तो साफ़ दिखेगा कि अमेठी से संभावित हार की आशंका में केरल के वायनाड से राहुल चुनाव इसलिए जीतने में सफल हुए कि वहां की डेमोग्राफी में अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों की जनसंख्या इतनी अधिक है, कि वही निर्णायक है. वायनाड में जो निर्णायक हैं, वह कांग्रेस के समर्थक हैं, तो बीजेपी को कभी वहां महत्वपूर्ण स्थान मिल नहीं पाता.
उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस के बीच में जनाधार का जो असंतुलन है, वह भी जनसंख्या के असंतुलन से जुड़ा हुआ है. उत्तर भारत में हिंदू आबादी जनादेश को प्रभावित करती है, तो दक्षिण भारत के कई राज्यों में मुस्लिम आबादी का समर्थन जनादेश को निर्णायक बनाता है. इसी कारण राजनीतिक दल अपने अपने वोट बैंक के हिसाब से जनसंख्या को देखते हैं. बल्कि कोशिश करते हैं,कि उनके समर्थक समूह को ही अधिक से अधिक प्रोत्साहन और अवसर मिले, जिससे उनकी एकजुटता का लाभ मिल सके.
जनसंख्या का राजनीतिक समीकरण अपनी जगह है लेकिन आबादी के कारण देश की समस्याएं अपनी जगह हैं. बेरोजगारी, महंगाई की आज सबसे ज्यादा चर्चा होती है. इसके लिए आबादी भी एक महत्वपूर्ण कारण है. जनसंख्या का नियंत्रण समय की आवश्यकता है. धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर जनसंख्या नियंत्रण का कानून बनाना ही पड़ेगा. तभी जनसंख्या में असंतुलन को रोका जा सकेगा.
लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट जिहाद की बात सुनाई पड़ीं है. वोट जिहाद पॉपुलेशन जिहाद से ही जुड़ा हुआ है. इसका आशय है,कि पूरी आबादी एकजुट होकरअपनी ताकत से अगर समर्थन करेगी तो उसके समर्थक दल की जीत पक्की हो जाएगी.
जनसंख्या में वंशवृद्धि और असंतुलन अब ऐसे दौर में पहुंच गए है, कि इस पर कानूनी नियंत्रण जरूरी हो गया है. यह विषय बहुत जटिल है. अभी तो समान नागरिक संहिता के लिए ही भारत को संघर्ष करना पड़ रहा है. अभी तो एक शादी और अनेक शादी की व्यवस्थाएं भारत में चल रही है. जब अभी तक शादी पर ही एक समान कानून नहीं बन पाया है, तो फिर बच्चे पैदा करने पर, एक समान कानून की कल्पना कैसे की जा सकती है?
वंश बढ़ाने के नाम पर भारत को बेबस बनाना सही संकल्प नहीं हो सकता. चीन में जब बेतहाशा जनसंख्या बढ़ रही थी, तब वहां नियंत्रण के लिए कानून बनाया गया. भारत में भी जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना जरूरी हो गया है. यद्यपि बढ़ती शिक्षा और जागरूकता के कारण प्रजनन दर में गिरावट देखी गई है.
मुस्लिम समाज में भी पिछले 32 साल में प्रजनन दर लगभग आधी हो गयी है. शिक्षा और अवेयरनेस से नियंत्रण तो सबसे अच्छा कहा जा सकता है, लेकिन इससे अब शायद समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा. अब तो जनसंख्या नियंत्रण कानून पर ही विचार करना होगा.
जनसंख्या बढ़ाना ही जीवन की कहानी नहीं है. सीमित जनसंख्या में भी जीवन का सर्वस्व पाया जा सकता है. भारतीय सभ्यता और संस्कृति में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक ही पूजे जाते हैं. आराध्यों और पैगंबरों की संख्या सीमित है लेकिन उनकी प्रतिष्ठा असीम है, तो फिर केवल वंश बढाकर प्रतिष्ठा पाने की लालसा बेमानी ही है. भारतीय सभ्यता तो संख्या पर नहीं, आत्मा की खोज पर टिकी हुई है. पूरी जिंदगी की बुद्धिमानी और नादानी जनसंख्या की कहानी कह रहा है.
हर नए जन्म के साथ पूरा जीवन निकल जाता है. हासिल केवल यही दिखता है, कि उसने भी वंश वृद्धि कर दी है. यही क्रम चलता रहता है. अगर वंश की संख्या असंतुलित हो गई तो फिर तो जीवन नार्किक अनुभव करने में हीं गुजर जाता है. जनसंख्या को ताकत बनाए रखना है, तो इसे नियंत्रित करना बहुत जरूरी है. जनसंख्या के मामले में सोच का बदलना जरूरी है.
जनसंख्या बढाकर सत्ता पर काबिज होने की सोच आत्मघाती है. समाज में किया गया कोई भी घात मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगा लेकिन आत्मघात मृत्यु के बाद भी आघात करेगा. आत्मा की अमरता हमें यही सिखाती है, जानबूझकर जनसंख्या बढाने की आत्मघाती प्रवृत्ति को छोड़ना ही होगा.